भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देखा हर एक शाख पे / फ़िराक़ गोरखपुरी
Kavita Kosh से
देखा हर एक शाख पे गुंचो को सरनिगूँ१.
जब आ गई चमन पे तेरे बांकपन की बात.
जाँबाज़ियाँ तो जी के भी मुमकिन है दोस्ती.
क्यों बार-बार करते हो दारों-दसन२ की बात.
बस इक ज़रा सी बात का विस्तार हो गया.
आदम ने मान ली थी कोई अहरमन३ की बात.
पड़ता शुआ४ माह५ पे उसकी निगाह का.
कुछ जैसे कट रही हो किरन-से-किरन की बात.
खुशबू चहार सम्त६ उसी गुफ्तगू की है.
जुल्फ़ों आज खूब हुई है पवन की बात.
१.सिर झुकाए हुए २. सूली के तख्ते और फंदे ३. शैतान
४. किरण ५. चाँद ६. चारों ओर.