देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना क़रीब से / साग़र ख़य्यामी

देखा है ज़िन्दगी को कुछ इतना क़रीब से
चेहरे तमाम लगने लगे हैं अजीब से

इस रेंगती हयात का कब तक उठायें बार
बीमार अब उलझने लगे हैं तबीब से

हर गाम पर है मजमा-ए-उश्शाक़ मुन्तज़िर
मक़्तल की राह मिलती है कू-ए-हबीब से

इस तरह ज़िन्दगी ने दिया है हमारा साथ
जैसे कोई निबाह रहा हो रक़ीब से

ऐ रूह-ए-असर जाग कहाँ सो रही है तू
आवाज़ दे रहे हैं पयम्बर सलीब से

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