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देखा है सफलता को उछलते मैंने / संदीप द्विवेदी

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जहां को इसके आगे रंग बदलते मैंने
देखा है सफलता को उछलते मैंने..

जिनके संग है बीता बचपन
जिनके साए में होता था अपनापन
दोनों ने छुआ उस पायदान को
जिनको कि तरसता है जीवन
जीवन के इसी मोड़ पर देखा है
सफलता को सफलता से उलझते मैंने
देखा है सफलता को उछलते मैंने ...

कभी नजरें मिली तो उनकी नजरें मुड गई
राहों में देखा कभी चलते तो उनकी मंजिल मुड़ गई
मिला करते थे जो मुझे कल तक
सावन में रेन से
उनकी ये मुलाकात क्या से क्या हो गई
फिर क्यों न कहूँ देखा है
सफलता से जहां को बदलते मैंने
देखा है सफलता को उछलते मैंने ..

जिनकी मुट्ठी में थी हसीं जन्नत
पा लेते थे जो थी उनकी चाहत
कल तक रहा करते थे जो जहां की ऊँचाइयों में
गिरते देखा है मैंने आज उनको खाइयों में
फिर क्यों न कहूँ देखा है
सफलता को असफलता में बदलते मैंने
देखा है सफलता को उछलते मैंने...

कौन कहे उन सूखे बाग़ में
आँखें तक न फेरी जहां बादल ने
कौन कहे उन हरी वादियों को
झुकाए हैं सिर जहाँ बादल ने
फिर क्यों न कहूं देखा है
सफलता को असफलता में बदलते मैंने
देखा है सफलता को उछलते मैंने...