देखिये अब उज़्र क्या हो बख्शिशे-दीदार पर / रतन पंडोरवी
देखिये अब उज़्र क्या हो बख्शिशे-दीदार पर
काट कर सर रख दिया है आस्ताने-यार पर
दम ब-ख़ुद मैं ही नहीं हूँ शोखिए-रफ्तार लर
महवे-हैरत है ज़माना कामते-दिलदार पर।
बे-नवाई, बे-करारी, बे-कसी, बे-चारगी
रह गया मेरा मदारे-ज़िन्दगी इन चार ओर
दाम-ओ-दाना तक यही कमबख्त ले आये मुझे
हो गये मेरे लिए तो बाइसे-आज़ार पर
ले गये सब झोलियाँ भर कर तिरे दर से करीम
इक निगाहे-लुत्फ इधर भी बे-नवा नादार पर
हम ने राहे-शौक़ में बढ़ कर अनलहक कह दिया
देखते हैं दर पे मिलती है जगह या दार पर
जब मुसीबत आ पड़े अपने भु काम आते नहीं
दाम के हलके में आ कर हो गये बे-कार पर
राहे-उल्फ़त के मुसाफ़िर सोच ले अच्छी तरह
मंज़िले-मक़सूद है तेगे-अजल की धार पर
चीर कर रख दूँ कलेजा उस के कदमों में 'रतन'
मरते मरते यूँ चढ़ाऊँ फूल हुस्ने-यार पर।