देखि री नंद-नंदन ओर / सूरदास
राग केदारा
देखि री नंद-नंदन ओर ।
त्रास तैं तन त्रसित भए हरि, तकत आनन तोर ॥
बार-बार डरात तोकौं, बरन बदनहिं थोर ।
मुकुर-मुख, दोउ नैन ढ़ारत, छनहिं-छन छबि-छोर ॥
सजल चपल कनीनिका पल अरुन ऐसे डोंर (ल) ।
रस भरे अंबुजन भीतर भ्रमत मानौ भौंर ॥
लकुट कैं डर देखि जैसे भए स्रोनित और ।
लाइ उरहिं, बहाइ रिस जिय, तजहु प्रकृति कठोर ॥
कछुक करुना करि जसोदा, करति निपट निहोर ।
सूर स्याम त्रिलोक की निधि, भलैहिं माखन-चोर ॥
भावार्थ :-- (गोपी कहती है-) `सखी (यशोदा जी) नन्दनन्दन की ओर देखो ! भय से कंपित-शरीर होकर श्यामसुन्दर तुम्हारे मुख की ओर देख रहें हैं । बार बार तुमसे डर रहें हैं, मुख की कान्ति घट गयी है, क्षण-क्षण पर दोनों नेत्रों से दर्पण के समान निर्मल कपोलों पर अश्रु ढुलका रहे हैं ! ये तो शोभा की सीमा हैं, अश्रु भरे पलक हैं तथा चञ्चल पुतलियों पर ऐसे लाल डोरे हैं, मानो रस भरे कमलों के भीतर भौरें घूम रहे हों ! छड़ी के भय से ये नेत्र ऐसे दीखते हैं जैसे और भी लाल हो उठे हों! इन्हें हृदय से लगा लो, चित्त से क्रोध दूर कर दो और इस कठोर स्वभाव को छोड़ दो । यशोदा जी, मैं अत्यन्त निहोरा (अनुनय) करती हूँ, कुछ तो दया करो ।' सूरदास जी कहते हैं - श्यामसुन्दर भले माखन-चोर हों, परंतु वे त्रिलोक की निधि हैं ।