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देखें, क्या बनाता हूँ! / तरुण

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तुमने डाल दिया मेरे सामने
जीवन का विशाल आकाशीय विस्तार
दृष्टि का फैलाव अपार
और दे दिया संत्रास-युग की साँस का एक झनझनाता तार!
खिलौनों-से डाल दिये मेरे पास-
सपने, कल्पनाएँ, अश्रु और उच्छ्वास!
और, छिपकर घास-पात में पास ही कहीं खड़े हो गये, देखने कि-
देखें, मैं रोता हूँ या गाता हूँ
और इस सबका मैं क्या बनाता हूँ!

डाल दिये तुमने मेरे सामने-
भुरभुरी रेत, चिकनी काची माटी, डोरी और चाक
और तुम खड़े रहे छिप कर अवाक्
-कि देखें, मैं क्या बनाता हूँ!

डाल दिये-कागज, कपड़ों की चिन्दियाँ, रंगों की डिब्बियाँ, प्यालियाँ,
कूँचियाँ, घोंघे, शंख, चूड़ी के टुकड़े, पक्षियों के छितराये पंख,
आँखों में क्षितिजपारीय सपनों की इन्द्रधनुषी जालियाँ।
लटका भी दीं मुझ पर खटमिट्ठे फलों की डालियाँ।
और,
फैला भी दिया मन में, आँखों में मुट्ठी-भर अँधेरा
कानों में पहाड़ी रागिनी का मादक स्वर घनेरा!
और तुम खड़े देखते रहे कि मैं
अपने सर्जन के क्षणों में
मन के अतलान्त निदिड़ गह्वरों में
काजल के अँधेरे के पार
छन्दों भरी डोंगी से मैं अकेला कैसे जाता हूँ,
देखें, मैं क्या जुगाड़ बैठाता हूँ!

1985