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देखे मुझे हँसे सन्नाटा !/ हरीश भादानी
Kavita Kosh से
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
निरे अकेले बैठे-बैठे
बहुत दूर की
कई-कई आवाज़ें लगें मुझे
अपने तक आतीं,
अगुवाने को उठूँ कि देखूँ
सड़क ले गई उन्हें
झोंक कर मुझ पर सिर्फ गुबार
हँसे सन्नाटा !
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
रोज ऊँघते गूँग लगे है फिर भी
मुझसे केवल मुझसे ही बतियाने
कोलाहल आँगन में आ बिखरा है,
हँसती आँखें फेर बुहारूँ,
चुग-चुग जोडूँ आखर-आखर
बने न कोई दो हरफों का बोल
हँसे सन्नाटा !
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !
कई-कई बार
लगे सपने में
मेरे ही सिरहाने बैठा
लोरी झलझलता कोई सम्बोधन
दुलरा-दुलरा मुझे जगाए
इस चूनर, आँचल से हुमकूँ
फैंकू नींद उघाड़
दिखे सन्नाटा !
देखे मुझे हँसे सन्नाटा !