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देखो, सरपट भागा जाड़ा / मधुसूदन साहा
Kavita Kosh से
भागा, भागा, भागा, भागा
देखो, सरपट भागा जाड़ा।
गरम कोट-स्वेटर ने कर दी
हाथ हिलाकर बाई-बाई,
लेती रहती थी जो हरदम,
बिस्तर से उठ गई रज़ाई।
सूख गये मुखड़े मौसम के
गरमी ने कर दिया कबाड़ा।
चाय और कॉफी को घर में
भूल गये सब अब तो लाना,
शरबत-ठंढाई का फिर से
घर-घर में आ गया जमाना,
धूल और धुक्कड़ ने आकर
घर-आँगन का हाल बिगाड़ा।
आम और लीची की फिर से
बाज़ारों में रौनक आई,
खरबूजे की फाक देखकर
सबकी आँखें हैं ललचाई,
जंगल-जंगल महुआ महका
बस्ती-बस्ती बजा नगाड़ा।