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देखो न / छवि निगम
Kavita Kosh से
देखो न
बहुत कुछ बचा रह गया है
बाकी अभी भी
मेरी पिटारी में..
एक अंकुर
लुका छिपा है अरे
रेगिस्तानो के बंजर अंक में कहीं,
इक किलकारी है
सहमी सी
दहशतों के कातिल गर्भ में धंसी हुई।
हाँ, है एक
थरथराती रेखा
उजास की
खामोश-कालिखों की गोद में खेलती,
लड़खड़ाती छत भी है
अंधड़ों पर सधी अब तक
एक किरन भर उजास सही
दरकती दीवारों में हौसला अभी है बाकी।
ये चटखी सी चौखट ही
नयी सृष्टि की होगी बानगी देखना तुम
बागबान हूँ मैँ!
आखों में धूप संजोये
उगा ही लूँगा घोंसले नये
कोंपल सरीखे
खिलन्दड़े बदरा सीन्चेगे जिसे..
बगिया इक सुंदर सपने सी
खिला लूँगा
पिटारी रख अपनी क्षितिज पर
नींव में मिल जाऊँगा
उर्वरता उपजा लूँगा
सूरज चंदा चमका लूँगा
तुम देखना...