भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देखो ये शाम गेसुय-ए-शब खोल रही है / अबू आरिफ़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखो ये शाम गेसुय-ए-शब खोल रही है
गुंचे चटक रहे है कली बोल रही है

इक नूर उतर आया है सहराये अरब में
हर एक जबाँ सल्ले अला बोल रही है

आया कोई छ्लकता हुआ जाये गुलाबी
शबनम भी दो बूँद को लब खोल रही है

चाहे वह शब-ए-हिज्र हो या हो शब-ए-विसाल
मेरे लिए दोनों बड़ी अनमोल रही है

छुप-छुप के रो लिए हो देखे न कोई और
आरिफ तेरी ये आँख तो सच बोल रही है