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देख कर बगुला भगत को मछलियाँ खाते हुए / विनय कुमार
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देख कर बगुला भगत को मछलियाँ खाते हुए।
आ गए शागिर्द पोखर तक भजन गाते हुए।
नूर से उनके सियासत की गली रौशन हुई
कर गये बेषर्मिय़ाँ जो लोग शर्माते हुए।
शांतिदूतों की सवारी के लिए घोड़े उगें
कह गए वे अस्तबल की राख बिखराते हुए।
वह परिंदा था, हुआ इंसान, वह भी नामवर
शर्म आती है उसे अब पंख फैलाते हुए।
डालिये पानी जड़ों में, क्या भला सा पेड़ है
धूप में दिन काटता है छांव छितराते हुए।
बीडियाँ जलती रहीं, कागज़ रंगे जाते रहे
पेश अब होगी ग़ज़ल सिगरेट सुलगाते हुए।
धूप, बादल, चाय, न्यौता, प्रष्न, बच्चों की तरह
बारहा देखूं तुझे ऐ दोस्त मैं आते हुए।