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देख छबीली छटा / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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देख छबीली छटा, देख छरहरा बदन छाया आनन्द।
छकी-लुभा‌ई लगी देखने अपलक, अति अतृप्त, अद्वन्द॥
उमड़ा उर आनन्द-सुधानिधि, बही नेत्र शीतल रस-धार।
देख अतुल छवि, माधव मृदु हँस बोले अमृत-वचन सुख-सार॥
‘प्रिये! तुम्हारा तन-मन का यह दिव्य अतुल लीला-विस्तार।
सहज निरीहरूप मुझमें भी करता इच्छा का संचार॥
परमानन्दरूप मैं पाता इसे देख अतिशय आनन्द।
इसीलिये मैं छिप-छिपकर अविरत देखा करता स्वच्छन्द॥
परमसिद्ध योगीन्द्र, ब्रह्मावेा मुनीन्द्र, शुचितम सब संत।
छू सकते न तुम्हारी छाया, पा सकते न भावका अन्त॥
ललचाते नित रहते, कहते धन्य, धन्य गोपी-जन-भाव।
चरण-धूलि-कण सदा चाहते, सेवाका अति रखते चाव॥
इसीलिये वे पशु-पक्षी-द्रुम बन व्रजमें लेते अवतार।
पद-रज-कण ले गोपीजनका होते धन्य सिरों पर धार॥