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देख रहा मैं, करते लीला श्रीराधा-माधव / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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देख रहा मैं, करते लीला श्रीराधा-माधव सुख-धाम।
नित्य निकुज निभृतमें रसमय मधुर मनोहर दिव्य ललाम॥
त्यागमयी सब सखी-मजरी रहतीं सेवामें तल्लीन।
किये नित्य राधा-माधव-सुख-सेवा-रस-निधिमें मन-मीन॥
उठतीं रस-समुद्रमें प्रतिपल दिव्य विविध रसमयी तरंग।
नित्य नवीन सुधा-विस्तारिणि, नित्य नवीन दिव्य रस-रङङ्ग॥
नहीं काम आदिक विकार कुछ, नहीं वासना-लेशाभास।
चिदानन्दमय होता रहता परम अलौकिक रास-विलास॥
मिटी सकल कल्पना जगतकी, नहीं रह गया कुछ अवशेष।
लीलामय श्रीराधा-माधव, लीला नित नव, शेषी-शेष॥