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देख रहे क्या देव, खड़े स्वर्गोच्च शिखर पर / सुमित्रानंदन पंत

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देख रहे क्या देव, खड़े स्वर्गोच्च शिखर पर
लहराता नव भारत का जन जीवन सागर?
द्रवित हो रहा जाति मनस का अंधकार घन
नव मनुष्यता के प्रभात में स्वर्णिम चेतन!

मध्ययुगों का घृणित दाय हो रहा पराजित,
जाति द्वेष, विश्वास अंध, औदास्य अपरिमित!
सामाजिकता के प्रति जन हो रहे जागरित
अति वैयक्तिकता में खोए, मुंड विभाजित!

देव, तुम्हारी पुण्य स्मृति बन ज्योति जागरण
नव्य राष्ट्र का आज कर रही लौह संगठन!
नव जीवन का रुधिर हृदय में भरता स्पंदन,
नव्य चेतना के स्वप्नों से विस्मित लोचन!

भारत की नारी ऊषा भी आज अगुंठित,
भारत की मानवता नव आभा से मंडित!