देख लिया है तुम्हें / बालस्वरूप राही
देख लिया है तुम्हें आंख भर एक बार, अब किसे निहारूँ।
तुम विहान की किरन जिसे भी छू दो वह कंचन बन जाये
तुम गंगा की धार, नहाये जो भी वह दर्पण बन जाये
प्राण! तुम्हारे नयन सीप में आंसू मोती बन जाता है
हाथ लगा दो रजकण के तो वह सुरभित चंदन बन जाये
जिस दिन से तुमको देखा है, मैंने आंख नहीं खोली है
मन ही हुआ नहीं कि किसी की अगवानी को पलक उघारूँ।
मेरा आंगन तीर्थ बन गया तुम जो मेरे द्वारे आये
जैसे ज्योति-विहंगम कोई अपने पंख पसारे आये
इतना भाग्य कहां था मेरा, जीते जी तुम को लख पाता
कौन जनम का पुण्य जगा जो मैंने दरस तुम्हारे पाए
रोना यदि अपशकुन न होता मैं दृगजल से पग पखारता
अगर धूम से भी पवित्र हो तुम कैसे आरती उतारूँ।
जितना दान मिला है तुमसे, मेरा उतना ही अर्जन है
जितने गीत लिखे हैं तुम पर केवल उतना ही सृजन है
जीवन के हर क्रय-विक्रय में मैंने तो खोया ही खोया
क्या दे पायेगा जग मुझको वह तो स्वयं निपट निर्धन है
जनम जनम का भिखमंगा मैं, पा कर तुम्हें कुबेर हो गया
अब क्या है दकार किसी के आगे अपने हाथ पसारूँ?
कमलों का व्यापार करें क्यों, सागर तट ओर रहने वाला
क्यों न सजाये भला हाट पर माणिक मुक्ताओं की माला
कल्पलता की छाँह बैठ कर डाह करूँ किस भाग्यवान से
क्यों तम से समझौता कर लूं पा कर किरणों का उजियाला?
एक बार संस्पर्श ज्योति का पा कर तम को छुआ न जाता,
मैं तो सूर्यमुखी जैसा हूँ, कैसे निशि की अलक संवारूँ।