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देख लें ज़िन्दगी अब दिखाती है क्या / अमर पंकज

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देख लें ज़िन्दगी अब दिखाती है क्या,
रीति उल्टी यहाँ है जताती है क्या।

पूछ मत तू हदें इश्क़ की आज फिर,
ये नमीं आँख की कुछ बताती है क्या।

दे रही है सदा हर दिशा आज फिर,
है हवा तो नयी पर लुभाती है क्या।

लीजिए प्यार से नाम मेरा कभी,
आपको बात मेरी ये भाती है क्या।

हों अकेले अगर तो मुझे साथ लें,
देखिए चश्म फिर कुछ लुटाती है क्या।

क्यों न दीवानगी की हदें टूटतीं,
चुप जुबाँ भी मेरी कुछ सुनाती है क्या।

क्या हुई है ख़ता जो सज़ा ये मिली,
याद उनको ‘अमर’ तेरी आती है क्या।