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देता नहीं है बार रक़ीब-ए-शरीर कूँ / वली दक्कनी

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देता नहीं है बार रक़ीब-ए-शरीर कूँ
शायद कि बूझता है हमारे ज़मीर कूँ

उस नाज़नीं की तब्‍अ गर आबे ख़याल में
बूझूँ सदा-ए-सूर क़लम की सरीर कूँ

बरजा है उसकूँ इश्‍क़ के गोशे मनीं क़रार
जो पेच-ओ-ताब दिल सूँ बिछावे हसीर कूँ

उसके क़दम की ख़ाक में है हश्र की नजात
उश्‍शाक़ के कफ़न में रखो इस अबीर कूँ

मुझको 'वली' की तब्‍अ की साफ़ी की है क़सम
देखा नहीं है जग में सजन तुझ नज़ीर कूँ