भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देता है मुझ को चर्ख़-ए-कुहन बार बार दाग़ / रंजूर अज़ीमाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देता है मुझ को चर्ख़-ए-कुहन बार बार दाग़
उफ़ एक मेरा सीना है उस पर हज़ार दाग़

देते हैं मेरे सीने में क्या ही बहार दाग़
खाए न उन को देख के क्यूँ लाला-ज़ार दाग़

लाला करेगा दिल की मिरे क्या बराबरी
उस पर है एक दाग़ यहाँ बे-शुमार दाग़

दुनिया के सारे सदमे हैं कम हिज्र-ए-यार से
दे मुद्दई को भी न ये परवरदिगार दाग़़

रखता है इश्क़-ए-लाला-रूख़ाँ दिल में वो निहाँ
सीने पे माहताब के है आश्कार दाग़

ज़ुल्मत से दी नजात दिल-ए-दाग़दार ने
रौशन मिसाल-ए-शम्अ है ज़ेर-ए-मज़ार दाग़

हर दम न क्यूँ लगाए रखें सीने से उसे
इक माह-रू के इश्क़ की है यादगार दाग़

क़ातिल मिरे लहू ने भी क्या खिलाए हैं
दामन पे तेरे देते हैं क्या ही बहार दाग़

जो ज़ुल्म चाहे रख दिल-ए-‘रंजूर’ पर रवा
दे तू मगर उसे न जुदाई का यार दाग़