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देना पाना / अज्ञेय
Kavita Kosh से
दो? हाँ, दो,
बड़ा सुख है देना!
देने में अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-
पर गिरेगा नहीं,
और फिर बोध यह लाएगा
कि देना नहीं है निःस्व होना
और वह बोध
तुम्हें फिर स्वतन्त्रतर बनाएगा।३
लो? हाँ, लो।
सौभाग्य है पाना!
उस की आँधी से रोम-रोम
एक नयी सिहरन से भर जाएगा।
पाने में जीना भी कुछ खोना
या निःस्व होना तो नहीं
पर है कहीं ऊना हो जाना :
पाना : अस्मिता का टूट जाना।
वह उन्मोचन-यह सोच लो-
वह क्या झिल पाएगा?
नयी दिल्ली, 29 जून, 1968