देवता की याचना / केदारनाथ मिश्र ‘प्रभात’
इतना विस्तृत आकाश-अकेला मैं हूं
तुम अपने सपनों का अधिवास मुझे दो
नीला-नीला विस्तार, हिलोरों में यो ही बहता हूं
सूनी-सूनी झंकार, न जाने क्यों उदास रहता हूं
यह अमृत चांद का तनिक न अच्छा लगता
प्रिय! तुम अपनी रसवंती प्यास मुझे दो
कण-कण में चारों ओर छलकती नृत्य-चपल मधुवेला
झूमे बेसुध सौंदर्य, लगा है मधुर रूप का मेला
ऐसी घड़ियों का व्यंग्य न सह पाता हूं
तुम अपने प्राणों का उच्छवास मुझे दो
वंदन के चंदन से शीतल छंदों की क्यारी-क्यारी
सब कुछ देती, देती न मुझे मैं चाहूं जो चिनगारी
रम जाऊं मैं जिसके अक्षर-अक्षर में
वह गीली-पलकों का इतिहास मुझे दो
यह देश तुम्हारे लिए बसाया मैंने सुघर-सलोना
कोमल पत्तों के बीच जहां आसों का चांदी-सोना
उतरुंगा सुख से मैं अंकुर-अंकुर में
तृण-तरु में मिलने का विश्वास मुझे दो
इतना विस्तृत आकाश-अकेला मैं हूं
तुम अपने सपनों का अधिवास मुझे दो।