देवता के दरख्त की त्रासदी / कुमार कृष्ण
जिस दिन कटा देवता का वृक्ष
सहम गयी पूरी अमराई
टूट गये उसी दिन आस्था के तमाम धागे
नष्ट हो गयीं मन्नतों की चुनरियाँ
दादी कहती थीं-
'उस पेड़ में रहते हैं प्रत्यक्ष देवता
जानते हैं हर मनुष्य की तकलीफ़
पल भर में हर लेते हैं तमाम दुःख
रोक लेती हैं देवता के वृक्ष की बाँहें
गाँव में आने वाला अमंगल'
दोस्तों ! देव-तरु था पूरे गाँव का हौसला
पूरी बस्ती की हिम्मत
वह था एक जन-विश्वास
बेशुमार चिड़ियों का घर
दूसरों को बचाने वाला नहीं रोक पाया इस बार
अपने ऊपर होने वाला प्रहार
नहीं फोड़ सका कुल्हाड़ी चलाने वालों की आँखें
'जन-हित' में दे दी देव-द्रुम ने अपनी जान
भू-अधिग्रहण में मारा गया आख़िर सुर-तरु
कानूनी जबड़ों ने ख़त्म कर दिया उसका हर-भरा वंश
ख़त्म हो गये उसके साथ ही-
लोक-निष्ठा के तमाम बीज
देव-तरु था लोक राग, लोक-आग का विनायक
वह था बादल राग, अग्नि राग, वायु राग, जीवन राग
सभी कुछ एक साथ
शोक में डूबा रहा बहुत दिनों तक पूरा गाँव
उसकी नींद में आता रहा बार-बार
देवता का दरख्त
आता रहा सपनों में उसका वार्षिक अनुष्ठान
जिसके आसरे साल भर के लिए
हो जाता था बेफिक्र पूरा गाँव
बच्चे करते रहे याद गुड़ का हलवा
होने लगी औरतों को फ़िक्र-
चुनरी बाँधने की
लोग सोचते रहे-
कौन सुनायेगा अब बादल राग, वायु राग
कौन ढूँढ़ेगा बस्ती की चिन्ताओं के हल
कौन रोकेगा अमंगल
इसी उधेड़बुन में बेहिसाब बाँसुरियाँ-
बजाने लगी पेड़ों की पीड़ा
गूँजने लगा जंगल में दरख्तों का दर्द
एक दिन ले लिया गोद ग्राम कन्याओं ने
सुर-तरुओं से भरा एक ख़ूबसूरत जंगल।