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देवदूत / सुभाष राय

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दिव्य आलोकपुँज जैसा वह मँच पर बैठा था
चौंधियाई हुई आँखों में समा नहीं रहा था
सपनों के अगणित सूर्य समेटे हुए

अन्धेरे, अपमान, भूख और नाउम्मीदी के
जँगल में भटकी आत्माओं को
मुक्ति की आवाज़ देता हुआ
धरती पर स्वर्ग उतारने का
आभास जगाता हुआ

उसके सामने भीड़ थी
अनागत की उमँग से लहालोट
बच्चे बहुत रोमाँचित थे
नास्त्रेदमस ने कहा था
.....कि एक दिन वह प्रकट होगा और
     चारों ओर फैल जाएगी रोशनी
.....कि एक दिन वह आएगा
     और सबको मुक्त कर देगा
.....कि एक दिन वह हाथ लहराएगा
     और मिट जाएगी ग़रीबी
.....कि एक दिन वह अपनी अमृतवाणी से
     नष्ट कर देगा बीमारियाँ, बुढ़ापा और मृत्यु
.....कि एक दिन वह निकलेगा सड़कों पर
     और फूट पड़ेंगी नदियाँ सुख और ऐश्वर्य की
     डूब जाएँगी झुग्गी-झोपड़ियाँ उसकी वेगवती धार में
     खेतों में खूब अनाज होगा, बाग़ों में खिलेंगे फूल

बच्चों के कन्धों पर पँख उग आए थे
पहली बार वे नास्त्रेदमस पर
यक़ीन करना चाह रहे थे
वे यह सोचकर भाव-विह्वल थे
कि एक रँक राजा बनकर आया है
वह भूला नहीं है अपने दुर्दिन
वह नए सम्वाद रचेगा, नई कहानी गढ़ेगा
वह मँच से उतरा और भीड़ जुलूस की शक़्ल में बदल गई

मँच से महामँच तक, सड़क से सत्ता तक
ख़ूब उत्सव मना, पटाखे छूटे, नगाड़े बजे
ज़मीन से आसमान तक आशाएँ पसरीं जगमग-जगमग
जिसने भी देखा था रोशनी का वह तूफ़ान
समझ नहीं पा रहा, वह सच था या सपना

आँखें बन्द करते ही दिखने लगता है वह
वादों को पूरा करने का वादा करते हुए
सपनों को हक़ीक़त में बदलने के सपने दिखाता हुआ
आसमान में सूराख़ करने के लिए हाथ लहराता हुआ
आँख खुलते ही बिखर जाती है उसकी आवाज़

वह महामँच पर है क्षण-क्षण बदलते हुए रूप-रँग
उसके पास रँग-बिरँगी पोशाकें हैं, अनगिनत चेहरे हैं
काले कैनवस पर काली पेन से लिख रहा है लगातार
पूछ रहे हैं लोग आख़िर कब ख़त्म होगा ये इन्तज़ार