देवमूर्ति का बोलना अपशकुन नहीं होता / निधि अग्रवाल
जीवन के प्रारंभिक ककहरे में ही
पढ़ा दिया गया था तुम्हें,
प से पुरुष, पाषाण, परमेश्वर।
सीखा दिया था तुम्हें सहेजना
हर किरचन को...
हर कोमल अहसास को
चेहरे के खुरदुरे भावों से छुपाना।
तटस्थता का आवरण ओढ़
हर मौसम में बदरंग,
पतझड़ के मौसम से झरे,
तुम्हारी मन की शाखाओं में
बसंती फूल क्या कभी नहीं खिले?
तुम्हारा विस्तृत सीना अवलंबन बना
कितनी ही निर्बल बेलों का,
वे पुष्पित, पल्लवित हो महकीं
और तुम्हारे कदमों के तले जमीं,
लम्हा-लम्हा, समय की रेत-सी
दरकती रहीं।
माथे पर रोली चढ़ा, अक्षत लगा,
तुम्हें बना दिया गया देव
और बाधित कर दिया तुमको
अनकहा रखने को मन का आवेग।
बतला दिया कि देवमूर्ति का बोलना
अपशकुन होता है।
हे बद्ध दृष्टि! सुनो,
समय आ गया है
अपनी अभिव्यंजनाओं को
नया आयाम देने का,
मन सागर में काई बन जम चुकी
हर अव्यक्त पीड़ा को खुरच
वहाँ सहजता के कमल
खिल जाने दो।
हटा कर निष्ठुरता का
छद्म आवरण...
किसी भी काँधे पर रख कर सिर
मन का क्लान्त बह जाने दो।
सुनो सुभग मेरे,
यह सच है कि
महीधर भी रोते हैं,
झरते झरने, बहती नदियाँ
उनके आँसुओं के द्योतक हैं।
निर्झर मन की
सुन लो तुम पुकार
कोमल फुहारों को
अंतस में बस जाने दो
पत्थर में भी कोपल
उग जाने दो !