देवयानियाँ कहाँ कभी कच से मिल पाई...? / कविता वाचक्नवी
देवयानियाँ कहाँ कभी कच से मिल पाई....
(नेपाल में राजकुल और नरेश के हत्याकांड पर)
अनुराग को
राजवंश की
मुद्रा ने
जब-जब दुत्कारा
किसी महाभारत के कथा-सूत्र
उस दिन से
उलझ गए थे।
किन्हीं पीढ़ियों से
चलते आए
राणाओं के विवाद ने
कुछ पोथी-पत्रों ने
दशा, ग्रहों, लेखों ने
सारा रस-संसार
आत्मिक स्नेह भाव निश्छल
झुठलाया।
किन्तु
सलिल की शीतलधारा
भेद
फूटती है गिरि ऊँचे
सारे प्रस्तर पाषाणों को चीर
वेग से
कल-कल करती
और, नहीं तो
ढा देती पर्वत की नोकें।
ऐसे ही हिम की गोदी में
रहनेवाले
शिव का तांडव
दाक्षा के
उन्मत्त प्रेम के लिए
हुआ था
उसी हिमालय के
आँगन में
राजवंश के ऊँचे गुंबद
भालों-से
आगे बढ़ आए,
ऊँचा राज-समाज
हुआ सन्नद्ध
कुचलने
चिर कांक्षा, अनुभूति, मनोभव।
एक बार फिर
कामदेव की हत्या ने
हिंसा भड़काई।
रक्त लथपथ पिता गिरे
रानी माँ लुढ़की
बहनें, बांधव-जन तड़पे
नाते टूटे,
चीखें उभरीं;
और फैलकर रक्त
राग के रंगों में
इकरस हो आया।
देवासुर संग्रामों में भी
देवयानियाँ
कहाँ कभी
कच से
मिल पाईं?
दर्प-सर्प के फूत्कार में
एकाकी हतभाग्य लिए
दहना होता है.......!!
एकाकी
हतभाग्य लिए
दहना होता है.......!!