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देवीपीठ / गायत्रीबाला पंडा / राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

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एक के बाद एक सीढ़ियाँ चढ़ती
मनोकामना ही पहले पहुँच जाती है वहाँ ।

मेरी सफ़ेद साड़ी, साफ़ बदन
हर बार पीछे छूट जाते हैं

यहाँ-वहाँ छिटके ख़ून से
पैर बचा-बचाकर चलते समय

न जाने क्यों मुझे तकलीफ़ हो रही है ।
बलि-स्थल पर है अपार भीड़, धक्कम धुक्का

नहीं दिख रहा अब मुझे
उन लाचारों का मुख

जिनकी गर्दनें कट चुकी हैं और
जो निर्विकार कर रहे हैं इन्तज़ार अपनी मौत का

खिंचा चला आ रहा कलेजा जिनका अन्तस्थल से
आँखों के कोने से बह रही है आँसुओं की धार

मुँह में ज़बान होती तो ज़रूर कहते
वापस ले चलो, वापस ले चलो हमें यहाँ से ।

मुझे नहीं दिख रहा उनका सिर
नहीं दिख रहा घातक का हाथ

कुल्हाड़ी, गँड़ासा या हथियार कोई,
मुझे दिख रहा है सिर्फ़ लाल रंग

बलि का ख़ून, ख़ून का लाल रंग
और लाल रंग के महोत्सव में

खड़ी हूँ मैं अपनी मनोकामना लिए
सहज, दर्पित ।

कुछ देर बाद यहाँ से
लौट जाऊँगी मैं अपने घर

साथ ले जाऊँगी
अरबी के पत्तों में लपेटकर

बलि चढ़ा थोड़ा माँस,
ताज़ा ख़ून थोड़ा,

मेरा परिवार, मेरे निकट सम्बन्धी
भाव-विह्वल हो उठेंगे

सबके ख़ून में समा जाएगी
उस ख़ून की महक

मनोकामना पूर्ण होने की
पुलकित तृष्णा ।

मेरे तमाम सपनों में दिखेगा वह पीठ
मेरे कानों में गूँजेगा पीठ से माहात्म्य

मेरी चारपाई से सटकर खड़ा होगा
वह लाचार बकरा

जिसके माँस में है मेरी मनोकामना
पूर्ण होने की सम्भावना

जिसके आँसुओं में है
मेरे विजयी होने का विज्ञापन

जिसके ख़ून में है
मेरे उज्जवल भविष्य की सुगन्ध

वह बकरा मुझसे पूछ रहा होगा
तुम्हारी महत्वाकाँक्षा का रंग

क्या मेरे ख़ून से है और भी गाढ़ा लाल ?

मूल ओड़िया भाषा से अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र