मस्तक देकर आज खरीदेंगे हम ज्वाला!
जो ज्वाला नभ में बिजली है,
जिससे रवि-शशि ज्योति जली है,
तारों में बन जाती है,
शीतलतादायक उजियाला!
मस्तक ...
फूलों में जिसकी लाली है,
धरती में जो हरियाली है,
जिससे तप-तप कर सागर-जल
बनता श्याम घटाओं वाला!
मस्तक ...
कृष्ण जिसे वंशी में गाते,
राम धनुष-टंकार बनाते,
जिसे बुद्ध ने आँखों में भर
बाँटी थी अमृत की हाला!
मस्तक ...
जब ज्वाला से प्राण तपेंगे,
तभी मुक्ति के स्वप्न ढलेंगे,
उसको छू कर मृत साँसें भी
होंगी चिनगारी की माला!
मस्तक देकर आज खरीदेंगे हम ज्वाला!