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देशी खीज / इला कुमार
Kavita Kosh से
ढोलक की थापों से निर्लिप्त
बड़ी बहू
बातों के पार छिपे अदृश्य सुख को
तलाशती है
शादी की चहल-पहल से
उसे
क्या लेना-देना
हां नेग में मिले कंगन की झिलमिलाहट
सुच्चे मोतियों के बीच
मोहती तो है
रह-रहकर वह उचकती है
एड़ियों के बल
पास खड़े सुदर्शन पुरुष की ओर
लुभावनी अदा का दांव
अनचटके ही मोह लेता है
किशोरियों के झुण्ड को
दरी पर बैठी औरतों की निगाहों में भरी हसरत
पर्दे तक छलक उठती है
कोई नहीं देख पाता
भरी-पूरी देह-यष्टि में सुलगते अभाव को
ठिगने पति के बगल में
पीठ झुकाकर खड़े रहना
हर पल
कितना त्रासद है
वह भी विदेश में...