देश-राग / बुद्धिनाथ मिश्र
(१)
कितनी सुन्दर है यह धरती।
हर ऋतु नव परिधान पहन कर
प्रकृति नटी है नर्तन करती।
गाती मधुर गीत उत्सव के
सजती पुष्पों से,पर्णों से
प्राची और प्रतीची के तन
रचती चित्र विविध वर्णों से
पयस्विनी सरिता बन कोटिक
सन्तानों का पोषण करती।
कितनी सुन्दर है यह धरती।
यह उल्लास अमृत पर्वों का
वेणु गुंजरित यह वेतस-वन
कहाँ सुलभ ऐसा ऋतु-संगम
हिम का हास,जलधि का गर्जन
मलयानिल-सी मन्द-मन्द बह
श्रांति थके पथिको की हरती।
(२)जनदेवता
ग्राम-ग्राम परम धाम
जय हे जनदेवता ।
हर छवि नयनाभिराम
जय हे जनदेवता
बनकर प्रत्यूष वात
करते तुम नव प्रभात
ज्योति-बीज तुम सकाम
जय हे जनदेवता ।
गिरि-वन-नभ-सिन्धुधार
ये पग हैं दुर्निवार
भिन्न रूप, एक नाम
जय हे जनदेवता ।
विष पीकर अमृत दान
करते तुम शिव समान
कण-कण अवतरित राम
जय हे जनदेवता ।
मुखरित कर अनल राग
सफलित भो कर्मयाग
शत-शत तुमको प्रणां
जय हे जनदेवता ।
(३)अमर रहे गणतन्त्र
अमर रहे गणतन्त्र हमारा
जग की आस सुबह का तारा।
वीरवती यह धरती, जिसके
हाथों में संकल्प सृजन का
आँखों में ममता के सपने
पाँवों पर वैभव जन-जन का
लेकर हमसे भीख ज्ञान की
जाग रहा है यह जग सारा।
यह विदेह की जन्मभूमि है
राजा यहाँ प्रजा से शासित
सीता जैसी राजवधू भी
जनरव पर होती निर्वासित
सुख-समृद्धि का सूर्य उगाने
आया पावन पर्व हमारा।
इस धरती पर प्रथम ज्योति के
मंत्रों ने जय-पंख पसारे
इस धरती पर प्रथम-प्रथम
संस्कृति ने अपने रूप सँवारे
यहीं अमृतमय स्वर जागृति का
पाता विश्व गरल का मारा।