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देश अपना है अनोखा / गुलाब सिंह

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फसल कम खूथियाँ ज्यादा
हैं किसानी में

बादलों के सामने
पहले जिरह-बख़्तर
तानकर छाती, उठाये
युद्ध का स्तर

छिड़ी सूखे से लड़ाई
राजधानी में।

दूर तक दौड़ी नहर
गहरे नए नलकूप
क्या हुआ फिर भी
न बजते आँगनों में सूप

कंगनों के बोल
कविता या कहानी में।

देश अपना है अनोखा
नहीं धोखा है,
किले की दीवार में
कोई झरोखा है,

जहाँ से हर लहर उठती
रेत-पानी में।