देश के पहरेदारों से / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
उठो देश के पहरेदारो! तनिक विचार करो!
लोकतंत्र की काया में बल का संचार करो।
पाँव थके पथ में मंज़िल की मिटी न दूरी है,
जब तक जुड़ पाता सुख-सुमता का अध्याय नहीं,
तब तक समझो स्वतंत्रता की कथा अधूरी है,
रामराज्य का सपना मत भूलो, साकार करो!
लोकतंत्र की काया में बल का संचार करो।
सूरज निकल चुका फिर भी छाया अंधियारा है,
नाव भँवर से निकल गई पर दूर किनारा है,
काँटा निकल गया पदतल से दद्र ने मिट पाया,
छिपा बादलों में अब तक सौभाग्य - सितारा है,
मांग रहा जो समय आज, उसको स्वीकार करो!
लोकतंत्र की काया में बल का संचार करो।
कली-कली के घूंघट पट में बसी निराशा है।
धुटी-घुटी भँवरों के अंतर की अभिलाषा है,
मुक्त गगन के पंछी खुल कर चहक नहीं पाए।
पनघट पर भी पंथी की अनबुझी पिपासा है,
फिर सूखे अधरों पर तम रस की बौछार करो।
लोकतंत्र की काया में बल का संचार करो।
प्रासादों में नित्य नई मनती दीवाली है,
कुटिया में डेरा डाले अब तक कंगाली है,
रोज़ अमीरी के भरते जा रहे ख़ज़ाने हैं,
किन्तु ग़रीबी की झोली खाली की खाली हैं,
घोर विषमता के दानव दल का संहार करो।
लोकतंत्र की काया में बल का संचार करो।
बेशक़ इस उपवन पर अब अधिकार तुम्हारा है,
नहीं किसी ने लेकिन इसका रूप सँवारा है,
नन्दनवन की सुषमा अब तक सौंप नहीं पाए,
कब से बैठा दूर किए मधुमास किनारा है।
नव वसंत लाकर पतझर से अब उद्धार करो।
लोकतंत्र की काया में बल का संचार करो।
स्वयं अन्न का दाता देखो बना भिखारी है,
भूखा-प्यासा फिरता श्रम का मौन पुजारी है,
खेल रही दानवता के मुख पर मुस्कानें है।,
सजल नयन मानवता बेबस है, दुखियारी है,
राष्ट्रदेवता की प्रतिमा का नवशृंगार करो।
लोकतंत्र की काया में बल का संचार करो।