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देश छोड़ने के बाद / पुष्पिता

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देश छोड़ने के बाद
वह रहती है
अपने मन के देश में
स्वजनों के स्व से बने
स्वप्नों के देश में
उँगलियों में गिनते हुए दिन मेँ
वह काटती है अपने बढ़े हुए नाखून
चन्द्राकार कटे हुए नूह मेँ
याद आता है उसे अपने चाँद का नेह

देश छोड़ने के बाद
अमावस्या की अँधियारी
पसर गई है समय में
जहाँ आँसुओं से लिखती है
पारदर्शी, उजले और भीगे शब्द

रातों की छाती पर
बिछोह की हिचकियों से सिहरे हुए
रखती हैं सहमते हिज्जे अकेलेपन के
और सारी रात जागकर सिसकियाँ
सूरीनामी तट की तेज समुद्री हवाओं को
सौंपती है संतापी तूफान
और आँखें
सितारों के आले में
रखती हैं प्यार के शब्द

समय की कंघी से
उतर आए अपने केश को
भेजती है अपने पत्र में शब्दों के साथ
अकेलेपन की सिलवटों को
अरमानों के शब्दों में सहेज रखती है
देश छोड़ने के बाद
सूनी-थकी साँसों को सँभालती है
प्रिय की दूरभाषी हतउत्कंठी आवाज़ से
पीती है तरल अमृत सुख

प्रिय का जिया हुआ दिवस
सुबह बनकर समाता है उसकी आँखों में
अपनी पहली चाय के समय
भारत में ढल रही साँझ की याद में
तैयारी करती है साँझी सुनहरी चाय
सूरीनाम 'कोला क्रेक' नदी के पानी के रंग में
घुली मिलती है नींबू की चाय पीती प्रिय की याद
शब्दों से चियर्स कहकर सिसक पड़ती है फोन पर
जैसे मन पृथ्वी के
दो गोलार्द्ध हो गए हों
एक-दूसरे को देखने-छूने को आकुल
एक तार में बँधे
दो तार हो गए हों दोनों
देश छोड़ने के बाद।