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देश दुर्दिन आज / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
रच रहा इतिहास कैसा, देश दुर्दिन आज।
हम उठाकर शीश कैसे, कर सकेंगे नाज।
अब कहाँ वह शांत जीवन, गीत गाते प्राण
टूटते जब स्वप्न सारे, चरमराते साज।
कर सकें झंकृत हृदय वह, मुस्कराती शाम,
मान हो मनुहार फिर से, हो मिलन के व्याज।
आँसुओं से मेघ हारे, कौन पूछे हाल,
ईश हम पर रुष्ट प्रतिपल, हैं गिराते गाज।
नाथ जग का सार तुम ही, प्रेम खेवनहार,
दो कुकृत का दंड उनको, जो बने हैं खाज।