देश प्रेम / कैलाश झा ‘किंकर’
देश प्रेम के आरक्षण लेॅ, कहिया उठतै वाद-विवाद ?
कहिया भारत देश हमर ई, सचमुच मेॅ होतै आजाद?
कैलकै खूब विकास चतुर्दिक दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता,
मगर गाँव के लोग अभी भी, द्रवित-दाह गम के गाथा,
बड़का-बड़का पदधारी ही देश करै लगलै बर्बाद ।
घुसखोरी मेॅ लिप्त रात-दिन, स्वारथ मेॅ बनलै अंधा,
पड़लै देश बिमार मगर के देतै भारत केॅ कंधा,
न्याय करो संसद मेॅ जल्दी, हमरा अब भेजोॅ संवाद ।
हरिश्चन्द्र, गौतम, बापू के देश झूठ सें तंग तबाह,
अन्यायी आतातायी सेॅ धर्म पराजित सगरो आह !
काम करै कुछ बोलै छै कुछ, मन मेॅ धैनेॅ छै कुछ बात ।
कामचोर केॅ पहचानोॅ अब, जब विकास बनलोॅ मसला,
इच्छा-शक्ति के सबाल छै, नै सबाल अबला-सबला,
झगडै लेॅ फुर्सल छै सबकै, कहिया रुकतै दंग-फसाद ।
देश प्रेम के आरक्षण लेॅ, कहिया उठतै वाद-विवाद ?