भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देश हमरोॅ छिकै तेॅ रहतै के / कैलाश झा ‘किंकर’
Kavita Kosh से
देश हमरोॅ छिकै तेॅ रहतै के।
हम न कहबै स्वदेश कहतै के।।
बाढ़ सूखा कमाल कैने छै,
कष्ट हमरोॅ छिकै तेॅ सहतै के।
पार अरबोॅ केॅ गेलै जनसंख्या,
हम न रुकबै कभी तेॅ रुकतै के।
आलसी लोग आब सौयै छै,
हम न करबै तेॅ काम करतै के।
घर न फोडोॅ हमर पड़ोसी सब,
भाय हमरोॅ छिकै तेॅ लड़तै के।