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देश / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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सबल हो लिबरल हैं बलहीन,
अहित को है हित-भाव प्रदत्त;
पान कर मनमानापन-मदक
स्वराजी हैं नितांत मदमत्त।
सुनाते हैं स्वतंत्रता-तान,
किंतु हैं कहाँ स्वतंत्र स्वतंत्र;
छेड़ते हैं हृत्तंत्री-तार
अन्य दल भूल जाति-हित-मंत्र।
बहुत ही है अनेकता-प्यार,
एकता पर है सारा कोप;
सभाएँ जाति-जाति की बनीं,
हुआ जातीय भाव का लोप।
फूट से फटे आज भी नहीं,
बढ़ रहा है दिन-दिन यह रोग;
मिटाना जाति-पाँति है, मगर
उसी पर मर मिटते हैं लोग।
कपट है पोर-पोर में भरा,
अधम का काम, साधु का वेश;
सभी हैं अहंभाव में मस्त,
कलह का क्रीड़ा-थल है देश।