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देश / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
सब तरफ कमज़ोरियों से
भर गया है देश
अब क्या रह गया है शेष,
अब क्या रह गया है शेष?
बेटियों के अधढके तन पर
विवश माँ का मन
सिहरता काँपता है,
बपा की संज्ञा धरे बूढ़ा कोई
बड़बड़ाता
नाक अपनी ताकता है,
थूक कर कहता कि-
अपना मर गया है देश।
बन्द गलियों से निकल कर शाम को
हवा जाने कहाँ-
गायब हो गई है,
साँस के लाले पड़े हैं गाँव में
शहर की भी रोशनी
गुल हो गई है,
आँख वालों तक अँधेरा
कर गया परिवेश।
योजना के खेत से खलिहान तक
एक बाँझिन गाय-सी
पगुरा रही है,
आय अंधी दया के परदेश में
आसरी की बाँह पकड़े
जा रही है,
हिन्द सागर से हिमालय तक
खड़ा दरवेश।