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देहरी-घर और आँगन / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
देहरी-घर और आँगन,
लौट आओ आज बचपन !
फिर नदी के पार गूंजे
टी.वी. टुट-टुट, टी.वी. टुट-टुट
सनसनाती हवा गुजरे
फड़फड़ाए बाग-झुरमुट;
पत्तियांें पर बर्फ-बूंदे
भोर में तिप-तिप सुनाए!
मीन छप से गिरे सर में
झिंगुरें घर झनझनाए !
देख वन्दनवार सुरधनु
मन लगे आकाश, पावन !
माँ बुलाए हाँक देकर,
बाँ बुलाए लेरु रह-रह,
बैल ज्यों बहके शकट से
त्यों उठे वह बोल हह-हह;
सरसराए खेत धनसर
मन लुभाए कास फूले,
रात-दिन मुझको बुलाते
पेड़ से वे लगे झूले;
पाठ के वे भजन कलकल
मौज के वे अगर-चन्दन !