देहरी घर / योगक्षेम / बृजनाथ श्रीवास्तव

पाँव छुएँ इस
देहरी के हम
घर को करें प्रणाम सखे

इस घर के हैं
कोने-कोने
अमृत रस में सने हुए
त्याग नेह के
सारे दीपक
रातों दिन हैं जले हुए

वातायन की
हवा संदली
लेती तेरा नाम सखे

भइया, भाभी,
माँ बहनों के
मीठे प्यार दुलार यहाँ
लोक कथाएँ
दादी वाली
गालों पर पुचकार यहाँ

ये ही मेरी
काबा-काशी
ये ही चारों धाम सखे

गहरी नीवें
हैं इस घर की
दीवारें मजबूत खड़ीं
छत की छाया
जीवन भर की
कलजुग में यह बात बड़ी

स्वर्गखण्ड सा
दीपित टुकड़ा
यही हमारा धाम सखे

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