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देहरी / सुदर्शन प्रियदर्शिनी
Kavita Kosh से
तुम्हारी
देहरी के अन्दर की यातनाएँ
दुर्योधन की बिछी बिसातें
टेढी चाल चलने वाले
मोहरों की तरह
आज भी
युधिष्ठिर को हराती हैं
वही बेढंगे सवाल
वही मेरे वजूद को
मेरे कपड़ों के दर से
बेधती हुई निगाहें
मेरे भावों
और अभावों
की उड़ती हुई खिल्ली
मुझे बाहर के झझांवतों से
कहीं ज्यादा सालती है।