देहात के लोग / श्रीनिवास श्रीकांत
वे अपने वस्त्र ख़ुद सिलते थे
सफ़र में जाने से पूर्व
उन्हें नहीं थी गाड़ी की दरकार
वे पैदल चलते
'चलाते चरणदास की बग्घी'
और न कभी थकते
शाम होते ही
जलने लगतीं झिलमिल
दूर से दिखतीं अन्धेरे में
उनकी लालटेनी रोशनियाँ
समय पर निपटा लेते
वे अपने सभी काम
देहात के पुराने लोग
वे ख़ुद बनाते थे
अपने हल
अपने बैलों को भी
सतत श्रम के बाद
प्यार से थे नहलाते
सहलाते थे उनके ज़ख़्म
साफ़ रखते उनकी त्वचा
समय पर चारा परोसते उन्हें
देहात के वे पुराने लोग
वे ख़ुद बनाते थे अपने मकान
मिट्टी, पत्थर, लकड़ी
गोबर की सेज में सीज़न की हुई
बनाते दूर के खेतों के निकट
घास की दो-घरी
छत भी बनाते थे पत्तों की
छक कर वे खाते थे
मृदु भोजन
मक्खन, छाछ व दूध के साथ
बीमार भी कभी-कभी होते थे
देहात के पुराने लोग ।।