देहों के उत्सवों के दिन / महेश सन्तोषी
सिलसिले देहों-से थे।
जहाँ तक चल सके चलते रहे
सिलसिले देहों के,
देहें ही कहाँ शाश्वत होती हैं?
जो शाश्वत होते सम्बन्ध किसी से देहों के।
हमने अप्रकाशित ही रहने दिया
अपने एक अस्थायी प्यार का प्रारब्ध
ज़िन्दगियाँ आगे चलती गयीं,
पिछली परछाइयाँ नहीं ढोईं हमने सभी
एक उन्माद था देहों का जो हमने
बन्धनों को भूलकर एक साथ जिया,
बाद में उसे न कोई उम्र दी, न सपने दिये, न भविष्य दिया।
देह की देहरियों पर प्यार के दिये ही जलते हैं,
आरतियों के नहीं,
हमने किसी वरदान के लिए समय के आगे हाथ नहीं जोड़े।
बस वर्तमान को एक दूसरे की बांहों में भर लिया
फिर वापिस नहीं लौटे, न कभी लौटेंगे,
हमारी समर्पित देहों के उत्सवों के दिन।
इसलिए न मैं कहीं आँचल फैलाये बैठी रही
न कहीं बांहे फैलाये खड़े रहे तुम।
एक हिस्सा था हमारी ज़िन्दगियों का
जो कभी फूलों की बस्तियों से गुजरा था।
तब हमने बांहों में कसे थे, छुये थे, चूमे थे,
एक दूसरे के ताजे बदन।
मैं मानती हूँ बड़े सुहाने थे
हमारी देहों की गंध से महकते
समय के आयाम।
वो स्पर्शों से भरे-भरे उगते सबेरे
वो स्पर्शों से भरी-भरी अलसाई शाम।
जितना भी था, कितना अपरिमित था!
वह सुख हम क्यों मानते?
उसके स्थायी न होने का दुःख
क्या हुआ जो तुम भूल गये
मुझे, मेरा नाम
क्या हुआ जो मैं भूल गयी तुम्हें
तुम्हारा नाम।