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देह, बाज़ार और रोशनी - 1 / यतीश कुमार

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उस कोने में धूप
कुछ धुँधली सी पड़ रही है

रंगीन लिबास में
मुस्कुराहट
नक़ाब ओढ़े घूम रही है

उस गली में पहुँचते ही
बसंत पीला से गुलाबी हो जाता है

इंद्रधनुषी उजास किरणें
उदास एकरंगी हो जाती है

और वहाँ से गुज़रती हवा
थोड़ी सी नमदार
थोड़ी सी शुष्क
नमक से लदी
भारीपन के साथ
हर जगह पसर जाती है

हवा में सिर्फ़ देह का पसीना तैरता है

दर्द और उबासी में घुलती हँसी
ख़ूब ज़ोर से ठहाके मारती है
सब रूप बदल कर मिलते है वहाँ

सिर्फ मिट्टी जानती है
बदन पिघलने का सोंधापन
और बर्दाश्त कर लेती है
हर पसीने की दुर्गन्ध

उन्ही मिट्टियों के ढूह पर
बालू से घर बनाता है
एक आठ साल का बच्चा
और ठीक उसी समय
एक बारह साल की लड़की
कुछ अश्लील पन्नों को फाड़ती है
और लिखती है आज़ादी के गीत

पंद्रह अगस्त को बीते
अभी कुछ दिन ही हुए है