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देह, बाज़ार और रोशनी - 3 / यतीश कुमार
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असमय फूल अक्सर यहाँ खिल जाते हैं
फूल खिलना यहाँ एक दर्दनाक हादसा है
अगर खिल गए
तो मसल भी दिए जाते हैं
तब खिलती मुस्कुराहट पर
सुर्ख़ छींटे भी पड़ जाते हैं
बदलते दृश्यों में
अजीब सी बौखलाहट तैरती है
भावनाएँ यांत्रिक बन मुखौटे लगाती हैं
पेट से पूरे बदन पर
चढ़ती आग की भी एक उम्र होती है
उम्र की साँझ पर तपिश
पेट से ही चिपकी रह जाती है
बदन पर नहीं उतरती
और तब इंतज़ार मौत से भी बदतर लगती है
अकेला खड़ा तुलसी चौरा
कभी आँखे बंद नहीं करता
आँगन में मुस्कुराता चहबच्चा
सारे आँसुओं को ज़ज्ब कर लेता है
वह कभी नहीं सूखता
बस दाग़ धोता रहता है
इन्हीं दृश्यों के बीच
आठ साला बच्चा
ढ़ूह की मिट्टी
मस्तक पर लगाता है
और ग्यारह साल की लड़की ने अब
उसकी उंगली सख़्ती से पकड़ ली है।