भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देह की रोशनी जब बुझेगी पिया / रिंकी सिंह 'साहिबा'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देह की रोशनी जब बुझेगी पिया,
नेह का फिर दिया क्या जलाओगे तुम।
भर हथेली में तुम ढल रहे रूप को,
डूब आँखों में क्या मुस्कुराओगे तुम।

वक़्त की धूप शबनम चुरा जाए जब,
उम्र आँखों से मेरी झलकने लगे।
जब लकीरें उभर आएंगी गालों पर,
बालों में चाँदनी जब चमकने लगे।
स्नेह अनुभूतियां क्या लुटाओगे तुम,
फूल बालों में फिर क्या सजाओगे तुम।

जब कभी रूठकर मौन हो जाऊँगी,
मैं कहूँ न कहूँ क्या सुनोगे सखे।
बह के आँखों से निकलेगी मंदाकिनी
मेरे पलकों से मोती चुनोगे सखे।
शब्द के ताल पर भाव की व्यंजना,
गीत कानों में क्या गुनगुनाओगे तुम।

दर्द की देहरी पर खड़ी हो अगर,
मौन अधरों से तुमको पुकारूँगी मैं।
वेदना से भरी चेतना से परे,
शून्य आँखों से राहें निहारूँगी मैं।
तब मेरे देवता क्या मिलोगे मुझे,
अपने हाँथो से दुल्हन बनाओगे तुम।