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देह के बाज़ार में आंख का सपना / दयानन्द पाण्डेय

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देह एक बाज़ार है
आंख एक सपना

बाज़ार भले मेरे साथ न हो
सपना तो
मेरे साथ है
बल्कि इस सपने में मैं हूं
और यह सपना बुनने में तुम

यह तुम
कोई सपना बुन रही हो
कि कोई स्वेटर

किसी अबोध बच्चे के लिए
उस की टोपी
उस का मोजा

तुम कोई औरत हो कि
कोई कुम्हार
कि प्रेम का कोई घड़ा रुंध रही हो
अपनी आंखों की चाक पर

तुम्हारी आंखों की इस दौड़ती भागती चाक पर
कितनी ही दुनिया
कितने ही सपने दौड़ रहे हैं

दौड़ रहे हैं और हांफ रहे हैं
हांफ रहे हैं इस फेर में कि
कहीं उन की दुनिया बदल न जाए

क्यों कि यह दुनिया मेरी है
यह सपने मेरे हैं

यह कुम्हार है
उस का हाथ है
उस का ध्यान है
कि
घड़ा बना रहा है
ध्यान बंटा नहीं, हाथ फिसला नहीं
कि घड़ा सुराही बन जाता है

हाथ वही है चाक भी वही
पर
मिट्टी की दुनिया बदल जाती है
घड़ा सुराही बन जाता है
या कुछ और भी

आंख भी ऐसे ही बदलती है
और प्रेम की दुनिया भी

गोया रेल की पटरी हो
कि ट्रैक बदलते ही
रेल का रास्ता बदल जाए

कि कंट्रोल रूम से सिगनल मिलते ही
जहाज का रास्ता बदल जाए

न्यूयार्क की तरफ जाते-जाते
लंदन की ओर उड़ जाए
दुनिया इधर से उधर हो जाए

तुम्हारी आंखें भी ऐसे ही
हमारी दुनिया बदल देती हैं
जाने कहां -कहां से गुज़ार देती हैं
कि दिल धक से रह जाता है

जाने कितनी नींद है
तुम्हारी इन बेकल आंखों में
नींद है कि सपना है
तुम्हारी इन बेसुध बौराई आंखों में
कि मैं
सारी दुनिया छोड़ तुम्हारी आंखों में लौट आया हूं
तुम्हारी आंखों में लौटा हूं कि सोने आया हूं

सोने आया हूं
कि सुस्ताने आया हूं

अपनी आंखों से कहो
मुझे अपने सपनों के झूले में
बिठा लें
अपने हिंडोले में
इतना झुला दें
कि
सपना सुनहरा हो जाए

मेहंदी लगे तुम्हारे बालों में फंसी
तुम्हारे काले आंचल से झांकती
किसी तोते जैसी अकुलाती और फड़फड़ाती
तुम्हारी कजरारी आंखें
लगता है जैसे चांदनी में डूबी यह आंखें
गंगा नहा रही हों
यह तुम्हारी आंखें हैं कि प्रेम की गंगा

काग़ज़ से भी हलकी और पतली
यह तुम्हारी पश्मीना शॉल
तुम्हारे कंधे पर बैठी
तुम्हारे विशाल उरोज
और तुम्हारे भारी नितंबों से टकराती
जैसे इन सब का नाप लेती
इस गुलाबी सर्द रात में
एक नया त्रिकोण रचती हुई
तुम्हारी आंखों से कतराती क्यों है भला
क्या इस लिए कि
कि कहीं कोई चतुष्कोण न बन जाए

इस लिए
इन सब को बताओ
चाहो तो मेरी तरफ से बता दो
इस पश्मीना शॉल को भी बता दो

बता दो कि तुम्हारी आंखों के बिना
इन सब का कोई अस्तित्व नहीं
ये विशाल उरोज, ये भारी नितंब
सब बेमानी है
क्यों कि यह सब देह के हिस्से हैं
बाज़ार के प्रतीक

लेकिन तुम्हारी आंख
देह का हिस्सा होते हुए भी
सपना है
और सपना सुनहरा ही नहीं
आत्मिक भी होता है
आत्मा का प्रतीक

बाज़ार आदमी बदलता है
और सपने दुनिया
  
इसी लिए
सपनों में
चांदनी में
चांदनी की गंगा में
इन सब में नहाती
इन तुम्हारी आंखों में
मैं ही मैं हूं

तुम्हें अपलक देखती मेरी आंखें
जैसे मेरे साथ ही
तुम्हारी आंखों में समा जाना चाहती है

[27 नवंबर, 2014]