भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

देह के मोती / यतीश कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी कभी कुछ पल
ऐसे होते है
जिनमें पलकें खोलना
समंदर बहाने जैसा होता है
उन पलों में आप और लम्हे
एक साथ सैकड़ों नदियों में
हज़ारों डुबकियाँ लगा रहे होते हैं

कभी लम्हा सतह से उपर
और कभी आप .........
लम्हों और आपके बीच की
लुक्का -छुप्पी , डुबकियाँ
सब रूमानी- सब रुहानि

फिर आप जैसे समंदर पी रहे हों
और नदियाँ सिमट रहीं हों
असीमित फैलाव समेटने के लिए

फिर एक लम्हे में छुपे हुए सारे समंदर
और उनमें छुपी सैकड़ों नदियाँ
छोड़ देते हैं बहना

लम्हे बिलकुल आज़ाद हैं अब
छोड़ देना आज़ाद कर देना
सुकून की हदों के पार
ला खड़ा करता है आपको
आप जैसे खला तक फैल कर
फिर ज़र्रे में सिमट रहे हों

बिखरते हर लम्हे ऐसे लगते हैं
जैसे आप के अस्तित्व के असंख्य कण
आपसे निकल कर
अंतरिक्ष के हर नक्षत्र को टटोलते फिर रहे हैं
पूरे ब्रह्मांड में आपका फैलाव
हावी हो रहा हो

जैसे हर लम्हा आपसे छूटकर
जाता हो ईश्वर को छूने

देवत्व की टुकड़ों में हो रही हो
स्वाभाविक वापसी

जगमगाते लम्हे, टिमटिमाते लम्हे
अंतरिक्ष में असंख्य सितारे
और उस पल उगते हैं
देह पर असंख्य नमकीन मोती

ब्रह्मांड भी कभी धरती पर
समाता हो एक शरीर के बहाने

हर ज़र्रा,हर लम्हा,शरीर का हर मोती
कायनात को रचने की क्षमता रखता है
और तब उस प्रेम भरे पल में
रीता लम्हा भी सृष्टि रचने की क्षमता रखता है।