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देह को भान था नहीं / मुकेश जैन

देह को भान था नहीं
कि वह देह है
  
तुम आईं
  
फिर देह को भान हुआ
कि वह देह है
  
तुम्हारे उभार देख
देह में दौड़ने लगा
ख़ून तेज़
और तेज़
और तेज़
  
इयत्त्ता तोड़ने
को बेताब रक्तदाब
  
साँस तेज़ चल रही थी
छूने को बढ़ रहा था
हाथ मेरा
तप्त था शरीर तेरा
या हाथ मेरा
आग-सी लग गई देह में
  
देह को भान हुआ
कि वह देह है।


रचनाकाल : 08 जनवरी 2010