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देह देह की स्मृति / दिनेश कुमार शुक्ल

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गो कि खाइयाँ गहरी होने लगी थीं,
और गहराने लगे थे अलग-अलग दो फांक
गरीबी-अमीरी के रंग,
आँखें चुराने वाला पड़ोस का ठेकेदार
अब दिखाने लगा था आँख जिस तिस को,
ज्यादातर घरों में गरीबी भरी रहने लगी थी
पूरे साल भिनभिनाती मक्खियों की तरह

फिर भी
कुछ अलग ही रंगत थी
उन दिनों की
कि निकलती थी प्रभातफेरी
और नदी बहती थी

ऐसा था उन दिनों
कि आत्मा थी
संताप था,
देह थी
पीड़ा थी,
दुख थे घनेरे
फेरे जनमों के
भरते थे भँवर
जैसे भरता है वलय-वलय
घिरता घन अन्धकार,
यह सब था
किन्तु नदी बहती थी निर्विकार

तट था
विटप थे
पखेरू थे
उनके बसेरे थे
नदी तट मुखरित था,
नदी में
उदात्त और शब्दमयी
शांति थी प्रवाह की --

देह वहाँ बहती थी
भारहीन भयहीन निश्चिन्त
रहती थी जल में
उत्प्लवित एक देह जोति
अतल देह दह की
आलोकित हरिताभा में

आज की तरह
तब भी
नीचे जल में गहरे
रहते थे मगर और घड़ियाल
तिस पर भी
निडर और निरातंक
देह वहीं बहती थी
क्योंकि तब भरोसा था
गहराई की उदात्त मर्यादा का

देह मुक्त बहती थी
साहस विश्वास शक्ति
आत्मा में भरती थी
पीकर जल का प्रकाश
अन्न फल फूलों में
एक जोति जगती थी

जगती में जल में
निनाद था जीवन का,
धरती हरी थी
जल था नीलाभ,
जगमग जग उठते थे
नभ में अगणित तारे,
बहे चले जाते थे
सारे दुख ताप त्रय
नदी के प्रवाह में

जगती में जल में
निनाद था जीवन का
उसी की अनुगूंज
कभी-कभी
संशय की तरह सनसनाती थी
बजता ज्यों सन्नाटा
घने विटप के नीचे
गहराती संध्या का
उतरता रंग था
दिवा की अस्तमिति का
इति का,
हवा भी
थी अथवा नहीं थी
न था वहाँ
कोई भी स्पन्दन

भरता था सन्नाटा
घट-घट में
झींगुर सा संशय का
झंकृत अदृश्य कीट

तट था
विटप थे
घने गहरे हरे
मोटे दल वाले पात
बट के थे
जल को
थपकाती सी डालें थी कालातीत
उन्हें देख-देख एक
अद्भुत सहजता सी
भरती थी
दिशाओं में देह में मन में --
आत्मा का झंकृत सितार
तब द्रुत लय में
बजता ही रहता था

बेकल
मन-भड्डरी
रह-रह कुछ कहता था
गो कि चुप रहता था

अकस्मात आया वह साल
जब आया अकाल और
पानी उतारा हुआ गेहूँ अमरीका से लाल-लाल
पानी उतरने का
एक और नया अर्थ
लोगों को पता चला उसी साल,
कैशोर्य की देहरी पर
मुझे भी पता चले
रोटी घर गाँव बाजार के कई अर्थ
एक साथ उसी साल

फैला था अकाल
और निर्जल हुई थी नदी
उसी साल प्रथम बार,
मेरे लिये
सृष्टि का कि काल का
टूटा था प्रवाह
उसी साल प्रथम बार

संशय की तेज होती आँधी
और सवालों की झड़ी में
पढ़ी मैंने
कविता निराला की
उसी साल प्रथम बार।