भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देह नृत्यशाला / अशोक चक्रधर
Kavita Kosh से
अँधेरे उस पेड़ के सहारे
मेरा हाथ
पेड़ की छाल के अन्दर
ऊपर की ओर
कोमल तव्चा पर
थरथराते हुए रेंगा
और जा पहुँचा वहाँ
जहाँ एक शाख निकली थी ।
काँप गई पत्तियाँ
काँप गई टहनी
काँप गया पूरा पेड़ ।
देह नृत्यशाला
आलाप-जोड़-झाला ।