देह में उगते मजबूत डैने / सुरेन्द्र स्निग्ध
कोसी क्षेत्र की एक लोक-गाथा पर आधारित
माँ की भारी पलकों की सीढ़ियों से
नींद की सूखी नदी में
सदियों बाद
उतर रही है नींद
लेकिन, आज माँ को जाना है
अपने प्रेमी के द्वार
इस महायात्रा के पूर्व
करना चाह रही अपूर्व शृँगार
एक पल के लिए
आज बन्द नहीं होंगी पलकें
हम सातों सुपुत्र
दसों दिशाओं में दौड़ रहे हैं आँधियों की तरह
तलाश रहे हैं
शृँगार के सर्वोत्तम साधन
सातों समुद्रों को मथकर
बटोर रहे हैं फेन पुष्प
दसों दिशाओं में फैली ख़ुशबुओं को फेंटकर
बना रहे हैं स्वर्गिक अवलेह
इसी से करेंगे
माँ का शृँगार
हम सातों ही
माँ के हाथों में लगाएँगे मेंहदी
उन्नत भाल पर सजाएँगे
सूरज और चान्द की बिन्दिया
अन्तरिक्ष तक लहराते
काले बालों के बादलों को
सजाएँगे फेन पुष्पी मालाओं से
लेकिन, अभी तक नहीं पहुँची है मालिन
जो सजाएगी जूड़े में
उड़हुल के ताज़ा खिले रक्ताभ फूल
नहीं उठेगी डोली
रूठी है माँ
मालिन की प्रतीक्षा में
हम भी हो रहे हैं अधीर
बीत रहा है तीसरा पहर
मुरझाने को हैं उड़हुल के फूल
कैसे होगा माँ का सोलहों शृँगार
कब उठेगी डोली
कब पहुँचेगी माँ
प्रेमी के द्वार
मैं सातवाँ सबसे निर्बल पुत्र
एक पैर से लाचार
अन्य भाइयों के साथ
उनकी गति से
कैसे पहुँच पाऊँगा गन्तव्य पर
कैसे पूरी होगी
माँ की चिर प्रतीक्षारत यात्रा
उधर माँ के आगमन के स्वागत में
पश्चिम हो रहा है लाल
चटकने ही वाली हैं गगन की कलियाँ
बिछ गए हैं क्षितिज पर
चन्दन, केसर, सिन्दूर और गुलाल
टूटे पैर के बदले
मेरी देह में उगने लगे हैं मज़बूत डैने
शाम ढलने के पहले
पूरी डोली के साथ
पहले मैं ही पहुँचूँगा
माँ के प्रेमी के द्वार
मैं माँ का सबसे प्रिय
सबसे छोटा सातवाँ बेटा
एक पैर से लाचार ।